गुरुवार, 23 सितंबर 2010



काश कभी ऐसा हो जाता,
तुम सामने मेरे बैठे होते,
हाथों में ले कर हाथ को मेरे,
तुम कुछ कहते, हम कुछ कहते।


अनजानी सुनसान डगर हो,
ख़ामोशी का हरसू असर हो,
बहकी बहकी तुम्हारी आँखे,
झुकी झुकी सी मेरी नज़र हो,
ऐसे में हम कैसे कह सुन पाते,
कानो में हमारे जो तुम कहते।


होता कभी जो ऐसा आलम ,
हम तुम और तन्हाई का मौसम,
सोंच के बढ़ जाती है धड़कन,
तुम क्या कहते, हम क्या कहते।


ऐसा होता ,वैसा होता,
जाने कैसा कैसा होता,
जज्बातों का बन जाता समंदर,
जब तुम ये कहते ,हम वो कहते...

अनुप्रिया...

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