गुरुवार, 18 नवंबर 2010

living dreams.

मेरे साँस लेते सपनों से मिलिए...छोटे साहब का नाम है लव. ये मेरे भतीजे हैं और अभी सिर्फ दो साल के हैं.अभी ठीक से बोलना भी नहीं आता इन्हें पर सारा घर सर पे उठा कर रखते हैं. बड़े साहब  मेरे  सुपुत्र हैं ...इनका नाम क्यूटू   {ओमतनय } ,और ये अभी ६ साल के हैं और छोटे साहब के गुरु हैं...:)


नन्हे क़दमों की रुनझुन रुनझुन,
तोतली बोली की मीठी गुनगुन,
कृष्ण की बासुरी सा मन  सुकून देता है...
मेरी ममता का हसीं ख्वाब है तू,
जो हँसता है, सांस लेता है...

प्रेम की मिट्टी से बना है तू,
मेरे अरमानों से सना है तू,
अपने आशीष की छांव में रख कर
मैंने दुवाओं से तुझको सींचा है.


तुझसे मतलब है मेरे जीने का,
तू मेरी जिन्दगी का मकसद है...
तुझको छू भी ना पाए कोई गम
 खुदा से बस यही मिन्नत है.
मेरे बच्चे ! मासूमियत से अपने हर पल
मुझको तू मुस्कुराने की वजह देता है,
"माँ "कह के बुलाता है तू जब भी मुझको
 अहसास एक ख़ास  होता है.

अनुप्रिया...

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

socho to jara...



सोचो तो जरा
गर्मी की दुपहरी में
काले बादल छा जाएँ,
ठंढी बुँदे बरसायें,
सब कुछ भींगा-भींगा कर जाए.
सोंचो तो जरा
अमावस की रात में
चाँद निकल जाए,
शीतल चांदनी बरसाए,
घर- आँगन रौशन कर जाए.
सोंचो तो जरा
पतझर के मौसम में
वसंत इठलाये,
फूल खिलाये,
हर तरफ बहार आ जाये.
तुम कहोगे मैं पागल हूँ
पर ऐसा होता है
जब थकान से चूर होती हूँ मैं
और तुम मेरा पसीना पोछते हो
और चूम के माथा मेरा
मेरे अस्तित्व  को
भींगा देते हो.
हाँ! ऐसा होता है
जब उदासी की अमावस में भी
तुम चाँद सा मुस्कुराते हो,
अपनी खुशनुमा बातों की
चांदनी बिखराते हो,
और मुझे अन्दर तक
रौशन कर जाते हो.
हाँ! ऐसा होता है
जब जीवन की आप-धापी में
मुरझा जाती हूँ मैं
और तुम अपनी शरारती आँखों से
मेरे मन में अनगिनत
फूल खिलाते हो,
मेरा तन-मन महकाते हो.
हाँ! प्रीतम तुम्ही तो हो
मेरे जीवन में,
जो कभी सावन, तो कभी पूनम,
तो कभी वसंत बन जाते हो.

अनुप्रिया...

 




सोमवार, 8 नवंबर 2010

wirah...

विरह...

Girl Sitting Alone


तेरे जाने के बाद ओ साथी
पतझर का मौसम आया था,
मेरे ह्रदय के दीप्त व्योम पर
काला सा तम छाया था.

प्रीत की बोली गाने वाली
कोयल जाने कहाँ छुपी थी,
मीठी प्यास जगाने वाला
सावन भी अलसाया था.

सूनी सी थी मन की गलियां,
अनजानी लगती थी दुनिया,
सैकड़ों की भीड़ में मैंने
खुद तो तनहा पाया था.

तड़प-तड़प कर आँखें मेरी
तुझको ढूंढा करती थी,
व्याकुल हो कर इन होठों  ने
गीत विरह का गया था.

क्या बतलाऊं  कैसे बीते दिन,
कैसे बीता वह इक - इक पल,
शांत झील सा प्रतीत होता था
झरनों सा ये मन चंचल.

सपनों के रंगीन शहर में
विराना सा छाया था...
तेरे जाने के बाद ओ साथी
पतझर का मौसम आया था...

अनुप्रिया...

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

raat ka balidaan...

2 Dec.१९९७, मेरी एक प्यारी दोस्त जिसका नाम रजनी है, ने मुझे इस कविता को लिखने कि प्रेरणा दी थी . वो बड़ी ही कमाल की लड़की हुआ करती थी. बिना किसी शर्त सबकी मदद करना ,हमेशा खुश रहना. उसे इस बात से कभी फर्क नहीं पड़ा कि कोई उसके बारे में क्या कहता है ,या क्या सोचता है. बल्कि मैंने तो ये भी देखा है कि उसने वक़्त पड़ने पर उनकी भी वैसे ही मदद की जिन लोगों ने उसे कभी पसंद नहीं किया.

हम तीन दोस्त हुआ करते थे...मैं , रजनी,  और मोना. तीनों का स्वभाव तो अलग था पर चीजों को देखने का नजरिया एक ही था...रजनी में एक अदा थी...नजाकत थी, खूबसूरती थी, कुल मिला कर एक कविता का inspiration बनने लायक थी वो.एक दिन मैंने उससे पूछा ,यार ! तू इतनी प्यारी और सुन्दर है, तेरे माँ -पापा ने तेरा नाम रजनी(रात) क्यों रख्खा ? उसने मुस्कुराते हुए कहा ...रजनी ही तो दिन की जननी है...कभी सोचा है !रात के बिना दिन का अस्तित्व  ही क्या है ?  मैंने जब सोचा तो ये कविता बन गई...


 और मोना ! जी वो गदा थी :) जी हाँ, बात निकली नहीं कि वहीँ ख़त्म. 
आज पुराने दोस्तों को याद करने की दो वजह है...पहली तो ये कि आज मेरा जन्मदिन है और सुबह - सुबह  हमने फ़ोन पर  ढेरों  बातें की और गुजरे दिनों को याद किया. दूसरी वजह इस कविता का शीर्षक है जो दिवाली की पूर्व संध्या पर दिवाली की खुबसूरत रात को अर्पित करना चाहती हूँ.



जानती थी ,डूब जाएगी वो
सवेरे की पहली किरण जो खिले,
दे के रंगीन सपने फिर भी संसार को
रात बढती रही नई सुबह के लिए.

वो बढती रही बस इसी आस में,
जो सवेरा जगे तो जगेगा जहाँ,
खिलेगी कलि फिर नए रंग की,
नए ढंग से नाच उठेगा समां.

वो बढती रही मृत्यु की तरफ,
संसार को ताकि जीवन मिले,
यथार्थविभूषित हो सके कल्पना,
टूटती साँसों को नव यौवन मिले.

अगर रुक गई वह कहीं स्वार्थ में,
फिर काफिला जिन्दगी का बढेगा नहीं,
ना होगा सवेरा तो इतिहास में
नया पृष्ठ कोई जुड़ेगा नहीं...

 दिवाली   की ढेरों शुभ कामनाओं के साथ :) :):)
अनुप्रिया...

बुधवार, 3 नवंबर 2010

jindgi ki recipe

मैंने इन पंक्तियों को दो साल पहले एक फॅमिली गेट टू गेदर के दौरान अपने दोस्तों के request  पर खाना खाते हुए ५ मिनट के अन्दर रची थी...उन्हें तो पसंद आई...अब जरा आप भी चख कर बताइए, कैसी लगी आपको...जिन्दगी की अनोखी रेसिपी.




एक किलो सुरमई सुबह में
एक चम्मच मुस्कराहट,
एक रत्ती जिन्दादिली और
एक चुटकी ली शरारत...


विश्वास की हांड़ी में भर के
प्यार के ढक्कन से ढँक दी,
सोच की कलछी से हिला कर
जोश के चूल्हे पे रख दी ..


कुछ देर जब पक गई...
डाली इसमें अपनी ताजगी...
दोस्तों.!जरा चख कर बताना
मेरी अनोखी जिन्दगी...

अनुप्रिया...

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

aaiye janab....do pal to baithiye paas me...

मेरे प्यारे पति देव को समर्पित, जिनके पास आज-कल मेरे लिए वक़्त ही नहीं है. :( :(:( 

 आइये जनाब, दो पल तो बैठिये पास में,
समझाएं कैसे , क्या मज़ा है प्यार के अहसास में.
जिन्दगी की कश्मकश में आप तो जीना ही भूले,
उलझने ही उलझने हैं आपके हर अल्फाज में.


सांसो की ये मोम  तो हर पल यूँ ही पिघलती रहेगी,
देह मिट्टी से बनी जो ,धीरे -धीरे गलती रहेगी,
वक़्त बढ़ने से रहा, हाँ ! जरूरतें बढती रहेंगी.
क्यों प्रेम का रस खो रहे हैं , इस अमिट सी  प्यास में.

हैं समंदर आप, समेटे हुए  हजारों  तिशनगी ,
मैं प्यार की मिठास लिए बह रही चंचल नदी,
दर्द ले लूँ  आपका और मैं बाँट लूँ थोड़ी ख़ुशी,
आइये ! दो-चार लम्हें तो गुजारें साथ में... 

अनुप्रिया...