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सोमवार, 20 दिसंबर 2010



जाने दो , क्या हांसिल होगा अपने जख्म दिखाने  से,
हमको नहीं उम्मीद जरा भी इस बेदर्द ज़माने से.

जिसको हमने बचा  के रखा दुनिया भर की आफत से,
दिल भारी हो जाता है मुझ पर उसी के  पत्थर उठाने से.

दिल टुटा ,रिश्ते टूटे और टूटे ख्वाब ना जाने कितने,
बस हिम्मत की डोर ना टूटी वक़्त के ताने बाने से.

जब थी जरुरत कोई थामे, कोई अपना नहीं रहा,
हो गई है पहचान सभी की , बुरे वक़्त के आने से.

अब छोड़ो ये रोना धोना, बेमतलब के शिकवे गिले,
जीवन तो ख़त्म नहीं होता ना ,एक दो ख्वाब टूट जाने से.

अनुप्रिया...

(तस्वीर मेरे गाँव की है. गंगा के किनारे की सुबह...कितनी पवित्र कितनी सुरमई होती है ना...)

6 टिप्‍पणियां:

abhi ने कहा…

ज़माना कब किसी का हुआ है जो हमारा होगा...ज़माने को ज़ख्म दिखाइयेगा तो खुद को और तकलीफ होगी..

वैसे आपकी इस कविता से मुझे एक मेरी पुराणी सी कविता याद आई..

एक बार एक मित्र के बदलते अंदाज़ से बेहद परेसान हो कर मैंने कुछ लिखा था..उसकी अंतिम दो पंक्ति इस तरह है
"सुना था औरो से, यकीन न था मुझको पर,
देखा है मैंने
बदल जाते हैं ज़माने के साथ
लोगों के अंदाज़ भी"

:)

Anupriya ने कहा…

true abhi jee...

केवल राम ने कहा…

जीवन तो ख़त्म नहीं होता ना ,एक दो ख्वाब टूट जाने से.
बिलकुल सही कहा अनुप्रिया जी ...शुक्रिया

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

बहुत ही सुंदर एहसास के साथ सुंदर ग़ज़ल
.
सृजन शिखर पर ---इंतजार

Kunwar Kusumesh ने कहा…

बस हिम्मत की डोर न टूटी वक़्त के ताने बाने में.
क्या बात है,बेहतरीन अभिव्यक्ति

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

sundar ehsason ki gazal ..