माफ़ करें, ये कोई कविता नहीं है...ये वो पीड़ा है जिसे हर औरत रोज कमो-वेश सहती हैं...
परन्तु अब बस...
हाँ! मैं औरत हूँ,
तो इसलिए
क्या तुम मेरे अस्तित्व
पर प्रश्नचिन्ह उठाओगे?
मेरी गरिमा की परिधि नापोगे,
मेरे स्वाभिमान की सीमा बताओगे.
तुम,
जिसे साँसे लेना मेरे गर्भ ने सिखाया,
जिसे चलना मेरी ऊँगली पकड़ कर आया,
आवाज को आकार देना जिसे मैंने बताया,
मेरी छमता को अब ऊँगली तुम दिखाओगे.
बहुत सह लिया मैंने.
तुम भूल रहे हो,
जिस ताकत पर गुरुर है तुम्हे,
वो मेरी छाती की लहू से बना है...
मुझे मत दिखाओ ये शक्तिशाली बाजू अपने,
ये वरदान भी मेरा ही दिया है.
जिस प्रसव पीड़ा को सह कर
दिया है जन्म तुमको,
उसका एक अंश भी सहा होता ,
तो समझ पाते तुम
मेरे अन्दर की ताकत ,
मेरी शक्ति को.
माँ बनी तो ममता दी मैंने,
प्रेमिका बनी तो समर्पण दिया,
पत्नी बनी तो पूजा तुमको,
बेटी बन कर भी मान ही अर्पण किया.
और तुम,
हर रूप में करते रहे शोषण मेरा,
अपने अभिमान में चूर हो कर तुमने,
घर से चौराहे तक
नरक बना दिया जीवन मेरा.
अंधे हो तुम,
मेरी ममता को कमजोरी मान कर
मेरा अवसाद बना दिया,
बहरे भी हो जाओगे,
लोरी को गर्जन भरा संवाद
बना दिया.
अपने मद में मस्त हो कर
खींचते ही जा रहे हो
मेरे सहन शक्ति की डोर को...
कभी तो टूट ही जाएगी.
तुम्हारे जीवन को रौशन करने वाली
मेरे प्रेम की ये लौ ही
एक दिन
तुम्हारा अंधा अभिमान जलाएगी.
तुम देखना.....


(आंकड़े और चित्र गूगल के सौजन्य से)
अनुप्रिया...
5 टिप्पणियां:
.बहुत प्रेरणादायक प्रस्तुति ...शुक्रिया
एक बेहद प्रभावशाली और सार्थक अभिव्यक्ति……………औरत कमजोर नही होती सिर्फ़ उसके मन का भय उसे कमजोर बनाता है जिस दिन वो अपने भय से मुक्ति पा लेती है उसी दिन अपना परचम फ़हरा लेती है……………भय भी उसके दिल मे उपजाया जाता है और ये हम सभी औरतो का कर्तव्य है कि आने वाली पीढी को इससे मुक्त करें।
बहुत ही भावपूर्ण ,मार्मिक और सार्थक कविता ......बिल्कुल सच्चाई बयां करती हुई.
very nice blog dea... bouth aacha laga aapka blog or aapka post
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वाह क्या बात कही हे आप ने इस कविता मे, बहुत अच्छी लगी, अति सुंदर, आप का ब्लाग भी ब्लाग परिवार मे शामिल कर लिया हे. धन्यवाद
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