रविवार, 23 जनवरी 2011

जिन्दगी क्या है,एक सफ़र तनहा...

  
जिन्दगी क्या है,
एक सफ़र तनहा...
दोस्त लाखों हैं,
हम मगर तनहा...

ख़ुशी की सुबह में तो
भीड़ बहुत थी लेकिन,
उदास शाम  हुई
तो रहा वो घर तनहा...


जिसकी हर शाख थी
आशियाँ परिंदों का,          
ढली बहार तो रह  गया
वो शजर तनहा...


दर्द बरसता रहा
आँखों से सावन बन कर, 
भींगती रही मैं भी

रात भर तनहा...


अनुप्रिया...







17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भीगी भीगी सी नज़्म ..मन में कहीं गहरे उतर गयी ...


    ढली बाहर तो रह गया

    बाहर की जगह शायद बहार होना चाहिए था ...


    नीलकंठ

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  2. ओह बेहद दर्दभरी कविता…………सुन्दर भाव समन्वय्।

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  3. sangeeta jee, aapka bahot bahot dhanyawaad...aapne sahi kaha, बाहर nahi, बहiर hi hai...it was my mistake...sorry.

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  4. wow.. bout he aacha post likhaa hai aapne dear... very nice going...

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  5. इन दिनों जगजीत सिंह जी एक ग़ज़ल सुनी थी....जिन्दगी यूँ हुई बसर तनहा....ये उसी के जैसी है कुछ-कुछ....अच्छी लगी मगर....बहुत अच्छी तो नहीं......हाँ मगर ठीक-ठाक......

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  6. मर्म स्पर्शि कविता ,बधाई आपको ।

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  7. अनुप्रिया जी , बहुत ही सुंदर कविता. दिल को छू गयी..........

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  8. गणतंत्र दिवस की बधाई एवं शुभकामनायें.

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  9. सधे शब्दों में सुन्दर भाव संयोजन .....
    बहुत खूब .....

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  10. अच्छी रचना
    इस बार मेरे ब्लॉग में क्या श्रीनगर में तिरंगा राष्ट्र का अहित कर सकता है

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  11. बड़ी छोटी सी उम्र में तन्हाई पर खूबसूरत नज्म कही ..अनुप्रिया आपने ..

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  12. जिन्दगी क्या है,
    एक सफ़र तनहा...
    दोस्त लाखों हैं,
    हम मगर तनहा...


    तारे तो बहुत हैं आसमान में
    पर चाँद तनहा .....
    अब समझ गए न

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  13. जिस्म तन्हा मेरी जां तन्हा
    चलता रहे हर करवां तन्हा

    खूब सूरत नज़्म .........

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  14. mujhe aapke vichar bhadhiya lage , d way u think of life is amazing....
    aapke jaise bahut kam log hote hai...

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