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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

एक कवि की प्रियतमा ...



चंचल आँखें , गोरा रंग,
चांदनी छलकता अंग अंग ,
ऐ काश कि मुझको मिल जाये
ऐसी ही प्रियतमा का संग।


होटों पर हो गुलाब की लाली,
वो चले तो झूमे डाली डाली,
हो उसपे आशिक ऋतुराज बसंत ,
ऐ काश कि मुझको मिल जाये
ऐसी ही प्रियतमा का संग।


वो सावित्री और सीता हो,
और प्रेम की बहती सरिता हो,
बातों से छलके प्रेम तरंग,
ऐ काश कि मुझको मिल जाये
ऐसी ही प्रियतमा का संग।


आँखों में भाव तरलता हो,
हर अदा में एक सरलता हो,
हो चित्त में शर्म की कम्पन ,
ऐ काश कि मुझको मिल जाये
ऐसी ही प्रियतमा का संग .


वो अनसुनी सी एक कहानी हो,
गंगा सा निर्मल पानी हो,
फुर्सत के छन में रची हुई
वो इश्वर का हो एक सृजन ,
ऐ काश कि मुझको मिल जाये
ऐसी ही प्रियतमा का संग।

अनुप्रिया...

8 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

वाह वाह वाह वाह्…………………बहुत ही लयबद्ध और गतिमान चित्रण किया है……………………बेहद उम्दा प्रस्तुति।

संजय भास्‍कर ने कहा…

अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.

माधव( Madhav) ने कहा…

बेहद सार्थक पोस्ट

abhi ने कहा…

ऐसा हो जाए तो फिर बात ही क्या...ऐसी प्रियतमा का संग मिलने से अच्छा कुछ है? ये बताइए :)

Anupriya ने कहा…

hummm...baat to aapne sahi kahi...par aisi priyatama dhundhne ke liye aapko mangal par jaana hoga...prithwi pe ye suwidha uplabdh nahi hai...

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

बहुत प्यारी सी कविता..। बस, एक जगह सुधार कर लीजिए...ऐ काश की मुझको मिल जाए... इस पंक्ति में ‘की‘ की जगह ‘कि‘ कर दीजिए।

Anupriya ने कहा…

Mahendra jee , aapka bahot bahot shukriya.maine apni galti sudhar li hai.

बेनामी ने कहा…

mja nhi aya