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गुरुवार, 26 अगस्त 2010



खुदा भी हंस पड़ा मेरे मोहब्बत के फ़साने पे,
हवा भी आज कानों में मेरी खिल्ली उड़ा गई।
दिन रात जागे हाय जिनके इन्तजार में
वो आये सामने जैसे ही हमको नींद आ गई।

कहानी ख़त्म हो जाती यहीं पर तो भी अच्छा था,
बताते शर्म आती है हमारा हाल ऐसा था,
वो कानो में सुनाते रह गए किस्सा मोहबत का,
हमारी आँख न खुली ,खुमारी ऐसी छा गई।

जुदाई कितनी भारी  थी, कैसा बेदर्द आलम था,
तुम्हारे बिन तो हर मौसम यहाँ पतझर का मौसम था,
उन्हें हर दर्द अपना और हर आंसू दिखाना था,
आया होश भी कब , जब उन्हें वापस को जाना था।

फसाने दिल में रह गए, लबों पे आह आ गई ,
गए तुम क्या .तुम्हारे साथ मेरी हर अदा गई...

अनुप्रिया ...

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