विरह...
तेरे जाने के बाद ओ साथी
पतझर का मौसम आया था,
मेरे ह्रदय के दीप्त व्योम पर
काला सा तम छाया था.
प्रीत की बोली गाने वाली
कोयल जाने कहाँ छुपी थी,
मीठी प्यास जगाने वाला
सावन भी अलसाया था.
सूनी सी थी मन की गलियां,
अनजानी लगती थी दुनिया,
सैकड़ों की भीड़ में मैंने
खुद तो तनहा पाया था.
तड़प-तड़प कर आँखें मेरी
तुझको ढूंढा करती थी,
व्याकुल हो कर इन होठों ने
गीत विरह का गया था.
क्या बतलाऊं कैसे बीते दिन,
कैसे बीता वह इक - इक पल,
शांत झील सा प्रतीत होता था
झरनों सा ये मन चंचल.
सपनों के रंगीन शहर में
विराना सा छाया था...
तेरे जाने के बाद ओ साथी
पतझर का मौसम आया था...
अनुप्रिया...
9 टिप्पणियां:
बेहद खूबसूरत भाव भर दिये हैं …………विरह का रंग ऐसा ही तो होता है……………सुन्दर प्रस्तुति।
मन को भा गयी कविता ! बहुत सुन्दर !!
virah ka bahoot hi sunder varnan..... sunder prastuti
सुंदर प्रवाह बनाती विरह रचना खूबसूरत है.
aap sab ka bahot bahot dhanyawad...
तेरे जाने के बाद ओ साथी,
पतझड़ का मौसम आया था !! वाह अनु जी हमें तो आपकी प्रारम्भ व अंत की ये दो लाइने बहुत अच्छी लगी अच्छी रचना के लिए बधाई हो !
क्या संयोग है, पतझड़ की कविता पतझड़ के मौसम में ही पढ़ रहे हैं, पतझड़ के जाने का इंतजार है, वो जाये तो बर्फवारी की तैयारी की जाये।
अच्छी रचना के लिए बधाई
किसी की याद जब आती है तो बहुत कुछ होता है :)
बहुत खूबसूरत :)
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