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मंगलवार, 16 नवंबर 2010

socho to jara...



सोचो तो जरा
गर्मी की दुपहरी में
काले बादल छा जाएँ,
ठंढी बुँदे बरसायें,
सब कुछ भींगा-भींगा कर जाए.
सोंचो तो जरा
अमावस की रात में
चाँद निकल जाए,
शीतल चांदनी बरसाए,
घर- आँगन रौशन कर जाए.
सोंचो तो जरा
पतझर के मौसम में
वसंत इठलाये,
फूल खिलाये,
हर तरफ बहार आ जाये.
तुम कहोगे मैं पागल हूँ
पर ऐसा होता है
जब थकान से चूर होती हूँ मैं
और तुम मेरा पसीना पोछते हो
और चूम के माथा मेरा
मेरे अस्तित्व  को
भींगा देते हो.
हाँ! ऐसा होता है
जब उदासी की अमावस में भी
तुम चाँद सा मुस्कुराते हो,
अपनी खुशनुमा बातों की
चांदनी बिखराते हो,
और मुझे अन्दर तक
रौशन कर जाते हो.
हाँ! ऐसा होता है
जब जीवन की आप-धापी में
मुरझा जाती हूँ मैं
और तुम अपनी शरारती आँखों से
मेरे मन में अनगिनत
फूल खिलाते हो,
मेरा तन-मन महकाते हो.
हाँ! प्रीतम तुम्ही तो हो
मेरे जीवन में,
जो कभी सावन, तो कभी पूनम,
तो कभी वसंत बन जाते हो.

अनुप्रिया...

 




4 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

प्रेम में डूब कर लिखी गई झील सी कविता...

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

सुंदर कविता ...बहुत ही सुंदर बिम्ब प्रिये के लिए.

abhi ने कहा…

बहुत कुछ ऐसा लिखा आपने जो कितने ही प्रेमियों ने महसूस किया होगा जैसे माथे का पसीना पूछना..आँखों से शरारतें करना और एक एकटक उसे देखे जाना..पतझड़ के मौसम में साथ घूमना...
कुछ याद हमें भी आया..

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

अनुप्रिया...बहुत सुन्दर है नाम...
पापा लोग ऐसे क्यूँ होते हैं इतना सुन्दर नाम दे देते हैं अपनी लाडली को...
मुझे भी मेरे पापा ने बहुत सुन्दर नाम दिया है ..एकदम झकास ...स्वप्न मंजूषा...है न सुन्दर..:)
आज पहली बार तुम्हारे प्रोफाइल पर गई...जमशेदपुर, हजारीबाग देखा तो बस्स्स ..पूछो मत... अब बस सोचो...पतझड़ में बहार और यहाँ बर्फ के मौसम में बसंत आ गया है ..
बहुत बहुत सुन्दर लिखा है तुमने ...एकदम प्रेम में पगी कविता...