एक अजीब सी चाहत है.
कि खो जाए मेरे भीतर का "मैं".
"मैं" जो प्रेरित करता है
अहंकार को, क्रोध को,
स्वार्थ को और" मैं "के सुख को .
"मैं " जो दबा देता है
समाज की संभावनाओं को,
"हम" के विकास को ,
देश के दुःख को.
"मैं " जो भूल जाता है
कि संसार में आये हर जीव की भांति
वो भी नश्वर है.
कुछ कृतियाँ बना कर ,
कुछ सफलताएँ प् कर
समझने लगता है कि
वो ही इश्वर है.
"मैं " जो जन्म देता है
कुप्रथाओं को, कुसंस्कार को
और मार देता है
मनुष्य के भीतर की
मनुष्यता को, प्यार को.
"मैं " जिसके पास नहीं होता
"मैं " के सिवा कोई अहसास ,
"मैं " जो सुन सकता है
सिर्फ "मैं " की आवाज.
इस लिए तो भीड़ में भी रह कर
रह जाता है अकेला
आदमी के अन्दर का "मैं "
शायद इसलिए चाहती हूँ
कि खो जाये
मेरे भीतर का "मैं"
ताकि मैं जी पाऊ "हम" बन कर.
मेरे दर्द के सिवा और भी
कुछ दर्द हो मेरे अन्दर.
मेरी हंसी के साथ
हँसे कुछ और होंठ भी ,
दूसरों के आंसू भी निकले
मेरी आँखों से
मेरे आंसू बन कर.
ताकि मैं ना डरूँ
सिर्फ मैं के अहित से
देश और समाज बड़ा हो
मेरे हित से.
ताकि मैं समझ पाऊं कि
इस संसार में सिर्फ एक मैं है...इश्वर ,
इस लिए चाहती हूँ कि खो जाये वो "मैं"
जो है मेरे भीतर...
अनुप्रिया...
1 टिप्पणी:
क्या बात है! बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
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