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रविवार, 31 अक्टूबर 2010

aaiye jhake meri subah me...

जी...आइये झांकते हैं मेरी आज की सुबह में...मेरी सुबह में खास ये है कि इसमें कुछ भी खास नहीं है.ये भी आप सब की सुबह से मिलती जुलती ही है, लेकिन ये  मुझे हमेशा याद रहेगी . क्यों...ये सब आप सब की सोहबत का असर है. जी हाँ...आज की सुबह पतिदेव से बातें करते वक़्त शब्द इतने लयबद्ध थे कि जनाब ने मुस्कुराते हुए कहा, मैडम! कभी तो अपने ब्लोगर  अकाउंट से साइन आउट हो जाइए. 
ये  कविता कैसी है ,ये तो आप बताएँगे, हाँ ! पर मेरे लिए मजेदार ज़रूर है.



लो...८ बज गए हैं,
अभी तक नींद फरमा रहे हो ?
इस लिए तो आज कल 
रोज़ लेट हो जा रहे हो. 

उफ़, अभी तक ब्रश  नहीं किया ?
बाथरूम में देखो तो
गीजर ऑन है क्या ?
मैं कुछ कह रही हूँ...
और तुम पेपर पढ़े जा रहे हो.

अरे ! ये भींगा हुआ तौलिया ?
इसे बिस्तर पर ही फैला दिया ?
गीले-गीले पैरों से
घर को भी भींगा रहे हो...

वहीँ तो रखी है मेज पर
तुम्हारी हर चीज़,
तुम्हारा पर्स, फाइलें,
और वो रही तुम्हारी सफ़ेद कमीज़.
बस सताने के लिए
बार-बार बुला रहे हो.

नाश्ता टेबल पे रख दिया है ,
मेथी का पराठा आज बना है.
दोपहर को क्या बनाऊं ?
सुनो ! लंच पर तो आ रहे हो ?

चलो, अब जाओ भी,
ये लो मोबाईल, चार्जर,
और गाड़ी कि चाभी.
खाने पर वक़्त से आना...
अरे...ऐसे क्यों मुस्कुरा रहे हो ?

अनुप्रिया...

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

ek maasum khwaab...



ये पंगतियाँ  मैंने तब लिखी थी जब मई १८ साल की  थी. नए नए सपने, एक अलग ही दुनिया थी वो... अचानक आज  पुरानी डायरी मिल गई. लगा जैसे खुद से बरसों बाद मिल रही हूँ. कुछ हँसते हुए पल मिले ,तो कुछ शरारत भरे अंदाज. सोचा ये भी बाँट लूँ आपसे.  इससे पहले भी इस डायरी से कुछ खुबसूरत  हुए लम्हे बाटें है आपसे जिसे आपने पसंद भी किया. अब तो जीवन पर हादसों की ऐसी परत चढ़ गई है कि शब्द मुस्कुराना ही भूल गए हैं. थोड़ी ख़ुशी अतीत से ही चुरा लूँ तो क्या बुरा है.

मेरी जिन्दगी का एक नया अध्याय ,
एक नई तन्हाई ,एक नया इन्तजार,
एक नए दर्द का अहसास,
एक अनजानी सी प्यास.

हर पल राहों पे अटकी आँखें ,
थमी-थमी आहिस्ता चलती सांसें,

एक अनसुना स्वर,
एक अनदेखी नज़र.

अब स्मरण नहीं आता कोई पहचाना चेहरा,
हर पल है आँखों के सामने
वही नया अनजाना चेहरा.

सोचती हूँ, क्या उसे भी इस दर्द का अहसास होगा?
मैं तो उसके यादों के समंदर में खोई रहती हूँ,
क्या मेरी यादों का  एक कतरा भी उसके पास होगा ?

फूलों के बीच से छुपता - निकलता वो
हर शाम चुपके से आ कर,
अपने खामोश लबों से
मेरे कानों में कुछ कह जाता है,
ऐसा लगता है , हर रास्ते, हर नुक्कड़ से
वो मुझे लगातार, अपलक निहारा करता है.

मैंने भी कई बार (सपनों में ),
उसकी मुस्कान की कोमलता को
अपने होठों पर सवारा है,
उसके झील से शांत व्यक्तित्व को
अपने ह्रदय की गहराई में उतारा है.

मैं नहीं जानती
इस अध्याय का क्या अंत  होगा ?
मेरी कल्पना  में  बसा ये चेहरा 
क्या कभी जीवंत  जीवंत होगा ?

मेरे नादान कदम 
एक अनजाने रस्ते  पर निकल पड़े हैं
सिर्फ तुम्हारे भरोसे,
मेरे सपनों में आने वाले  ऐ  मेरे हमसफ़र !
जीवन की अनजान  राहों पर
क्या तुम  मेरा साथ दोगे ? 

( इत्फाक से जीवन में कभी-  कभी सपने पूरे भी हो जाते है. इस कविता को लिखने के लगभग २ साल बाद मेरी शादी हो गई...मेरे सपनों के राज कुमार के साथ... : ) : ) : )

 अनुप्रिया...

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

mera diwana ...




ना जाने उसने मुझमे ऐसा क्या देखा?
वो ज़माने भर को भूल बैठा है,
जब उससे नाम उसका पूछे कोई,
बड़ी ही भोलेपन से नाम मेरा कहता है.

कभी वो फूलों में तलाश मेरी करता है,
कभी पत्ते- पत्ते पे नाम मेरा लिखता है,
उससे पूछे कोई की चाँद कहाँ है?
हंस के चेहरा मेरा दिखा देता है.

उसके हर दिन, उसकी हर रात में मैं,
उसकी हर आती- जाती साँस में मैं,
उसकी रगों में लहू की जगह जैसे मैं ही हूँ,
उसके रूह के हर अहसास में मैं.

वो वो नहीं रहा अब यारों,
उसको देखूं तो मुझे खुद का गुमाँ होता है,
और फिर मैं सोंच में पड़ जाती हूँ,
कि आखिर उसने मुझमें देखा क्या है?

: )  :)  :)

अनुप्रिया...

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010



खुद  को भुला दे अगर कोई सूरत,
तो हम उसको क्या नाम दें?
धडकनों से भी ज्यादा हो किसी की जरुरत ,
तो हम उसको क्या नाम दें?

जन्नत से ज्यादा हो जो खुबसूरत,
तो हम उसको क्या नाम दें ?
पल पल पे हो जाए उसी की हुकूमत,
तो हम उसको क्या नाम दे ?

अगर ख्वाब बन  जाये कोई हकीक़त,
तो हम उसको क्या नाम दें ?
हंसी लगने लगे जो किसी की शरारत ,
तो हम उसको क्या नाम दें?

कलियाँ चुराएँ जिसकी मुस्कराहट,
तो हम उसको क्या नाम दें?
सर से पांव  तलक  जो हो कोई कयामत,
तो हम उसको क्या नाम दें?

शायद दुआ मेरी कुछ काम दे दे,
सोचते हैं खुदा को ही पैगाम दे दे,
उसी ने तराशा ये फरिश्तों सा चेहरा,
कि जिसने बनाया वही नाम दे दे .
: ) :) :)
अनुप्रिया...

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

A life in depression

 A life in depression







एक जीवन,
दर्द की परिभाषा,
टूटती हुई आशा,
सिसकती हुई मुस्कराहट,
कराहता हुआ यौवन
एक जीवन.

एक जीवन,
बिखरते हुए सपने,
बिछड़ते हुए अपने,
शुन्य होती भावनाएं,
सुखा हुआ सावन,
एक जीवन.

एक जीवन,
पथराई हुई आँखें,
जलती हुई सांसें,
सुस्त होता हुआ व्यक्तित्व,
मानवता का पतन,
एक जीवन.

एक जीवन ,
चढ़ता हुआ तूफ़ान,
डूबता हुआ विहान,
सजा-धजा अस्मशान,
मृत्यु का आगमन,
हाय जीवन, हाय जीवन, हाय जीवन!

अनुप्रिया...


आप चले गए जो हमारी जिन्दगी से,

टूट जायेगा रिश्ता हमारा हर ख़ुशी से।


प्यार थोड़ा सा , मिले थोड़ा भरोसा,
और चाहिए क्या आदमी को आदमी से।


अश्क रुक रुक कर सही पर बहते रहे,
भूल कर भी भूले नहीं दिन बेबसी के .

हाथ पर जब हाथ आपका था हमारे,
वो भी क्या दिन थे हमारी बेखुदी के।

हर एक झरोखे में आप ही का गुमा हुआ
जब भी गुजरे हम आपकी गली से।

साथ बस आपका मिले हर एक कदम को,
और चाहिए क्या हमें इस जिन्दगी से।

अनुप्रिया...

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010



जाने भी दो यारों!
अब क्या गिला करें.
अपने दिल का हाल अब
किससे बयाँ करें.


इंसान में इंसानियत का
जब नामों निशान नहीं,
किस यकीन से हम बुत को
अपना खुदा कहें.

दोस्तों कि शक्ल में
है दुश्मन छुपे पड़े,
अब सोच में हैं कि
दोस्तों को क्या कहा करें.

वो क़त्ल करने पर तुले हैं
जो थे हमारी जिन्दगी ,
किस` दिल से अब हम उनको
 जाने वफ़ा  कहें.

अनुप्रिया...

muskurana badi baat hai...


 मुस्कुराना बड़ी बात है.

जिन्दगी की उधेड़बुन से
कौन बच पाया यहाँ...
दर्द चाहे जितना बड़ा हो
हंस के झेल जाना बड़ी बात है...


जीवन के इस अनोखे सफ़र में
साथ किसका उम्र  भर   का,
आधे रस्ते चलते चलते
हाथ छुटा हमसफ़र का,
क्या शिकायत वो अगर
साथ चल पाया नहीं,
दो चार कदम ही सही
साथ निभाना बड़ी बात है...

है अनिश्चित जितना जीवन,
उतनी ही निश्चित मृत्यु है,
ऐ मेरे मन "उनके" जाने से
भला विचलित क्यों तू है?
छोटी सही इस जिन्दगी को ,
जी जाना बड़ी बात है.

अनुप्रिया...

 

रविवार, 24 अक्टूबर 2010



पत्थर को छू कर नीर बना दे,
रेशम को जंजीर बना दे,
रात की काली चादर पर भी
इन्द्रधनुषी  तस्वीर बना दे,
ऐसा जादूगर है ये प्रेम.


मरुस्थल में घास उगा दे,
मृत बदन में श्वास जगा दे,
जलते हुए अंगारों पर भी
ये गुलाब के फूल उगा दे,
अमृत का सागर है ये प्रेम.


विष को छू दे,अमृत हो जाए,
सन्नाटे हर्षित हो जाए,
एक बार जो ह्रदय से गुजरे,
सात जन्म सुरभित हो जाये,
पारस सा पत्थर है ये प्रेम...

अनुप्रिया...



एक अजीब सी चाहत है.
कि खो जाए मेरे भीतर का "मैं".
"मैं" जो प्रेरित करता है 
अहंकार को, क्रोध को,
स्वार्थ को और" मैं "के सुख को .
"मैं " जो दबा देता है
समाज की संभावनाओं को,
"हम" के विकास को , 
देश के दुःख को.
"मैं " जो भूल जाता है
कि संसार में आये हर जीव की भांति
वो भी नश्वर है.
कुछ कृतियाँ बना कर ,
कुछ सफलताएँ प् कर
समझने लगता है कि
वो ही इश्वर है.
"मैं " जो जन्म देता है
कुप्रथाओं को, कुसंस्कार को
और मार देता है
 मनुष्य के भीतर की
मनुष्यता को, प्यार को.
"मैं " जिसके पास नहीं होता
"मैं " के सिवा कोई अहसास ,
"मैं " जो सुन सकता है
सिर्फ "मैं " की आवाज.
इस लिए तो भीड़ में भी रह कर
रह जाता है अकेला
आदमी के अन्दर का "मैं "
शायद इसलिए चाहती हूँ
कि खो जाये
मेरे भीतर का "मैं"
ताकि  मैं जी पाऊ "हम" बन कर.
मेरे दर्द के सिवा और भी
कुछ दर्द हो मेरे अन्दर.
मेरी हंसी के साथ
हँसे कुछ और होंठ भी ,
दूसरों के आंसू भी निकले
मेरी आँखों से
मेरे आंसू बन कर.
ताकि  मैं ना डरूँ
सिर्फ मैं के अहित से
देश और समाज बड़ा हो
मेरे हित से.
ताकि मैं समझ पाऊं कि 
इस संसार में सिर्फ एक मैं है...इश्वर ,
इस लिए चाहती हूँ कि खो जाये वो "मैं"
जो है मेरे भीतर...


अनुप्रिया...

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010


 हाय ! वो दो पल
ख़ामोशी ,तन्हाई
हवा में महकता
संदल...
वो उसका प्यार,
उसकी आँखें
चंचल - चंचल...
मैं ... शरमाई सकुचाई,
और मेरे ह्रदय के अन्दर
कसमसाती सी
हलचल...
मेरे हाथों पर उसके हाथ,
अजीब से हालत,
बहकते हुए अरमानों से
दिल ने कहा
संभल...
कि नहीं है ये तेरी मंजिल
उठ ! अब अपने रस्ते
निकल...

अनुप्रिया :) : ) :)


क्यों मैं जाऊं काबा काशी ,
क्यों जाऊं गुरुद्वारा,
मेरा तीर्थ वहीँ हो जाए
जहाँ हो साथ तुम्हारा.


साथ तुम्हारा हो तो हर सुख,
वरना सब बेकार ,
सात जन्म के पुण्य के फल में
मिला तुम्हारा प्यार.


मिला तुम्हारा प्यार तो दुनिया
लगती कितनी सुन्दर,
सात आसमान दिल में तुम्हारे
आँखों में सात समंदर .


सात रंग से रंग दिया तुमने
जीवन कोरा कोरा,
हर रात चांदनी हो गई मेरी,
दिन हो गया सुनहरा.


सात सुरों में ढली हुई सी
लगे तुम्हारी बातें,
क्या - क्या गिनवाऊं  मैं
तुमने क्या - क्या दी सौगातें.

अनुप्रिया...

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010



एक जमाना था दोस्तों , हम भी मोहब्बत में हुआ करते थे,
जमीं पर नहीं पावों को अम्बर पे रखा करते थे।



फूलों से भी बातें हो जाती थी कभी - कभी,
तितलियों से अपने अफसाने कहा करते थे।


जागती आँखों से भी कुछ ख्वाब सजा लेते थे,
हम बादलों पे उड़ता हुआ एक गाँव बना लेते थे।


दिन रात उससे मिलने कि दुवायें किया करते थे,
वो सामने आये तो अदा दो चार दिखा देते थे।


जो रूठे तो हर निशानी उसकी गंगा में बहा देते थे,
आया प्यार कभी तो खुदा उसको बना देते थे।


कभी सता कर खुश हुए तो कभी मना कर खुश हुए,
इश्क की हर अदा का हम खूब मज़ा लेते थे।


अब कहाँ वो दौर , वो मासूमियत भरी बातें,
बेख़ौफ़ ,बेपरवाह वो मस्ती कि सौगातें,

जिन्दगी को जब हम बेफिक्र जिया करते थे,
एक जमाना था दोस्तों, हम भी मोहब्बत में हुआ करते थे।


अनुप्रिया...