तुम्हारे लम्हों से सदियों के बीच
के सफर में
वो जो सूकून के दो पल है ना
उसी में है मेरा आशियाना,
हां! उसी चौक पे
जहां पेशानी पे तुम्हारे
शिकन आई थी ...
और तुम बैठ गए थे थक कर...
याद है उसी वक्त किसी ने तुम्हे सहलाया था,
तुम्हारे गालों पे ढलकते आसुओं को पोंछ कर,
तुम्हे उम्मीद के कुछ फलसफे भी दे आया था।
तुम्हारी नींदों ने वही गिरा दिए थे
अपने टूटे हुए कुछ अधूरे से ख्वाब,
मैंने ही तो बड़ी शिद्दत से उन्हें उठाया था...
पहचाना ?
अपने सपनों के पंखों को फैला कर
आजाद परिंदो सा तुम उड़ों
समंदर की गहराई ,अनंत की ऊंचाई भी छू लो
अपनी इन ख्वाहिशों की धुन में लेकिन
अपने घर का पता तो मत भूलो...
अरे यार! तुम्हे चाहिए होगी ये दुनिया तमाम
मेरी तो दुनिया ही तुम हो...
सुनो!
गुजर जाए तुम्हारी सहर कहीं
पर शाम होते ही तुम
मेरी बाहों में चले आना।
अनुप्रिया