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सोमवार, 25 अक्तूबर 2010



जाने भी दो यारों!
अब क्या गिला करें.
अपने दिल का हाल अब
किससे बयाँ करें.


इंसान में इंसानियत का
जब नामों निशान नहीं,
किस यकीन से हम बुत को
अपना खुदा कहें.

दोस्तों कि शक्ल में
है दुश्मन छुपे पड़े,
अब सोच में हैं कि
दोस्तों को क्या कहा करें.

वो क़त्ल करने पर तुले हैं
जो थे हमारी जिन्दगी ,
किस` दिल से अब हम उनको
 जाने वफ़ा  कहें.

अनुप्रिया...

2 टिप्‍पणियां:

TRIPURARI ने कहा…

अगर थोड़ी-सी मशक्कत की जाये तो यह रचना एक खुबसूरत ग़ज़ल का पैरहन पहन सकती है !

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

खूबसूरत कविता... दिल को छू गई..